धर्म, परिभाषा नहीं प्रयोग है (1)

 धर्म, परिभाषा नहीं प्रयोग है 


      किसी भी विषय को व्यक्त करने का माध्यम एकमात्र भाषा ही है, जब किसी भी वस्तु को या उसके भाव को व्यक्त करने के लिए उसे सुव्यवस्थित, निर्दोष व सुन्दर भाषा का स्वरूप प्रदान किया जाता है तो उसे ही परिभाषा कहते हैं।


      अध्ययन-अध्यापन के सभी क्षेत्रों में अपने कुछ पारिभाषिक शब्द होते हैं, कुछ परिभाषाएँ होती हैं जो अपने निश्चित व सीमित अर्थों से जुड़ी होती हैं उनका मनमाने ढंग से अर्थ नहीं किया जा सकता। जैसे कि 'दर्शन' शब्द का अर्थ अवलोकन भी है और श्रद्धान भी किन्तु जैनदर्शन के मोक्षमार्ग के प्रकरण में सम्यक्दर्शन का अर्थ भले प्रकार अवलोकन न होकर तत्त्व-श्रद्धान और आत्म अनुभूति ही होता है। 


      इसीप्रकार जैनधर्म के क्षेत्र में अनेक पारिभाषिक शब्द और परिभाषाएँ निश्चित हैं। जिनके माध्यम से धर्म का स्वरूप ज्ञात किया जाता है किन्तु परिभाषाएँ याद कर लेना । स्वयं धर्म नहीं है, बल्कि उन परिभाषाओं में जो बात कही गई है, उसका जीवन में प्रयोग करना धर्म है।


हमसे कोई पूछे “धर्म क्या है ? हम तुरन्त उत्तर दे सकते हैं -


      “यः सत्वान् उत्तमे सुखे धरति सः धर्मः।” अर्थात् जो प्राणियों को संसार के दुःखों से निकाल कर उत्तम सुख प्राप्त कराये वह धर्म है। “वत्थु सहावो धम्मो”, अर्थात् वस्तु का स्वभाव धर्म है। “दसंणमूलो धम्मो”, “चारित्तं खलु धम्मो' आदि और भी जो-जो परिभाषाएँ शास्त्रों में हैं और हमने पढ़ी हैं, उन्हें हम एक श्वांस में कह जायेंगे, क्योंकि ये सब परिभाषाएँ हमने शास्त्रों में पढ़ ली हैं, याद कर ली हैं।


      इसी तरह अहिंसा, अनेकान्त, स्याद्वाद, नय प्रमाण, निक्षेपादि तथा द्रव्य-गुण-पर्याय, साततत्त्व, नवपदार्थ तथा गुणस्थान, मार्गणास्थान, प्राण, पर्याप्ति आदि सभी सिद्धान्तों की भी हम सूक्ष्म से सूक्ष्म चर्चा कर सकते हैं, बड़ी-बड़ी धर्म-सभाओं को भी सम्बोधित करना कोई बड़ी बात नहीं है; किन्तु आत्मानुभूति के अभाव में ये सब वाग्विलास ही हैं, क्योंकि धर्म का शुभारम्भ भेदविज्ञान और स्वानुभूति से ही होता है। स्वानुभूति ही मोक्षमार्ग का प्रथम प्रयोग है और इसके बिना धर्म की परिभाषाएँ कोई अर्थ नहीं रखती।


     पण्डित टोडरमलजी ने भी मोक्षमार्ग प्रकाशक के सातवें अध्याय में स्पष्ट लिखा है – “जिन शास्त्रों से जीव के त्रसस्थावरादि रूप तथा गुणस्थान, मार्गणादि रूप भेदों को जानता है, अजीव के पुद्गलादि भेदों को तथा उनके वर्णादि विशेषों को जानता है; परन्तु अध्यात्म शास्त्रों में भेदविज्ञान को कारणभूत व वीतराग दशा होने को कारणभूत जैसा निरूपण किया है वैसा नहीं जानता।


      किसी प्रसंगवश उसी प्रकार जानना भी हो जावे तब शास्त्रानुसार जान तो लेता है; परन्तु अपने को आप रूप जानकर पर का अंश भी अपने में न मिलाना और अपना अंश भी पर में न मिलना – ऐसा सच्चा श्रद्धान नहीं करता है। जैसे अन्य मिथ्यादृष्टि निर्धार बिना पर्यायबुद्धि से जानपने में व वर्णादि में अहंबुद्धि धारण करते हैं, उसी प्रकार यह भी आत्माश्रित ज्ञानादि व शरीराश्रित उपदेश, उपवासादि क्रियाओं में अपनत्व मानता है। कभी शास्त्रानुसार सच्ची बात भी बनाता है परन्तु अंतरंग निर्धार रूप श्रद्धान नहीं है अतः इसे सम्यक्त्वी नहीं कहते।"


       इससे स्पष्ट है कि धर्म मात्र परिभाषाओं में ही सीमित नहीं, बल्कि वस्तु स्वरूप की सही प्रतीतिपूर्वक एक, अभेद, अखण्ड, त्रैकालिक, शुद्ध, ज्ञायक स्वभावी निजात्म तत्त्व को जानने में, पहचानने में, उसी में जम जाने, समा जाने में हैं। साथ ही साथ अविनाभावीरूप से रहने वाला बाह्याचार भी उसमें आता ही है।


      परिभाषाएँ तो हम से भी कहीं अधिक अच्छी टेपरिकार्ड भी सुना सकता है तो क्या वह भी धर्मात्मा हो जाता है? उसमें आत्मा है ही कहाँ जो धर्मात्मा कहलाये?


       दूसरी ओर जो मिथ्यादृष्टि ग्यारह अंग के पाठी तक होते हैं, क्या उन्हें ये सब परिभाषाएँ नहीं आती होगी? क्यों नहीं, अवश्य आती हैं। तो फिर आत्मानुभूति के बिना वे कोरे के कोरे क्यों रह जाते हैं? उन्हें धर्म लाभ क्यों नहीं होता? इससे भी स्पष्ट है कि धर्म परिभाषाओं में नहीं, प्रयोग में है और उसका आरम्भ आत्मानुभव से होता है। ____


       भगवान महावीर के जीव ने सिंह की पर्याय में परिभाषाएँ नहीं रटी थीं, न उसे कोई भाषण देना ही आता था; किन्तु मुनिराज का सम्बोधन प्राप्त कर भेदविज्ञान हो गया था, भेदविज्ञान होते ही आत्मानुभूति हो गई और जीवन में धर्म का शुभारम्भ हो गया; बारम्बार वस्तु स्वरूप का विचार कियामन में क्षणभर को विश्रान्ति पाकर अतीन्द्रिय आनन्द का अनुभव किया। बनारसीदासजी के शब्दों में कहें तो -


“वस्तु विचारत ध्यावतें, मन पावे विश्राम।


रस स्वादत सुख ऊपजे, अनुभव ताको नाम॥"


      ऐसा अनुभव करते हुए उसे कालान्तर में संसार-शरीर और भोगों से भी विरक्ति भी हुई, फिर क्या था मांसाहार का त्यागकर व सूखे पत्तों को खाकर और झरने का प्रासुक जल पीकर अनुभव के रस में झूलता हुआ अपना शेष जीवन बिताने लगा। ऐसे अनुभव की महिमा का वर्णन करते हुए पं. बनारसीदासजी स्वयं लिखते हैं -


"अनुभव चिन्तामणि रतन, अनुभव है रसकूप।


अनुभव मारग मोक्ष को, अनुभव मोक्ष स्वरूप॥"


इसका अर्थ यह न लगाना चाहिए कि परिभाषाएँ सीखना निरर्थक हैं या शास्त्राभ्यास व्यर्थ बताया जा रहा है, राजमार्ग तो यही है कि पहले हम शास्त्रानुसार अभ्यास करके निर्णय करें, फिर आत्मानुसार उसे जीवन में उतारें, क्योंकि - "आतम-अनात्म के ज्ञानहीन, जे-जे करनी तन करण क्षीण।" भेदविज्ञान के बिना सारा श्रम व्यर्थ है। एक आत्मानुभूति और आत्मध्यान के सिवाय पण्डित दौलतराम सब क्रियाओं को द्वंद-फंद कहते हैं। जगत के विषय-कषाय, धंधा-व्यापार, राजनीति की उठा-पटक तो दंद-फंद है ही, ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में बुद्धि का व्यायाम भी दंद-फंद मानते हैं। तभी तो निज आत्मा के ध्यान की प्रेरणा देते हैं। अतः स्पष्ट है कि 'धर्म परिभाषा नहीं प्रयोग है।'


      प्रयोग से मेरा अभिप्राय कोई बाह्य व्रत-त्याग या किसीवेश-विशेष के धारण कर लेने से भी नहीं हैं, ये सब तो अपनी भूमिकानुसार यथा अवसर आते ही हैं। यहाँ तो इतना प्रयोजन जानना कि जिनवाणी अनुसार सीखा है, परस्पर चर्चा-परिचर्या का विषय बनाया है तदनुसार उसकी प्रतीत व अनुभूति भी हो, वैसा ही हमें एहसास भी हो, हम वैसा महसूस भी करें, तद्रूप वैसा ही आंशिक परिणमन भी हो। ।


       जैसे कि हम शास्त्रानुसार यह जानते हैं कि – “एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कर्ता नहीं। हानि-लाभ, सुख-दुःख, जीवनमरण सब स्वयंकृत कर्मों का ही फल है।'' इस शास्त्र ज्ञान के चिन्तन-मनन द्वारा आत्मा में समता और धैर्य धारण करें। प्रतिकूलता में आकुल-व्याकुल न हों।


       अमितगति आचार्यकृत सामायिक पाठ में कहा भी है -


          “स्वयं किये जो कर्म शुभाशुभ, फल निश्चय ही वे देतेकरें आप फल देय अन्य तो, स्वयं किये निष्फल होते॥ अपने कर्म सिवाय जीव को, कोई न फल देता कुछ भी। पर देता है यह विचार तज, स्थिर हो छोड़ प्रमाद बुद्धि॥"


      तथा “पर्याय सब क्रमनियमित व क्रमबद्ध ही होती हैं


“जो जो देखी वीतराग ने, सो-सो हो सी वीरा रे।


अनहोनी होसी नहीं कबहुँ, काहे होत अधीरा रे॥"


तथा च “संयोग का वियोग निश्चित है। पर्यायें परिणमनशील हैं, आत्मा अजर-अमर अविनाशी है; धनादि बाह्यनुकूल संयोग परिश्रम से नहीं पुण्योदय के निमित्त से प्राप्त होते हैं, रोगादि भी पापोदय के दुष्परिणाम हैं।' ऐसे विचार को आचरण में लें, इससे जीवन में सुख-शांति का संचार होता है।


      तात्पर्य यह है कि जब जीवन में प्रतिकूल परिस्थितियाँ निमित्त हों ऐसे अवसर पर हम उक्त सिद्धान्तों को जिन्हें शास्त्रानुसार जानते हैं उन्हें आत्मानुसार प्रतीति में लेकर निराकुल रहने का प्रयास करें   


(क्रमश:)