(दोहा)
आखिर अब हम क्या करें इतना हमें बताव।
हम अपने में जात हैं तुम अपने में जाव॥१॥
साम्यभाव धारण करो छोड़ो सभी विकल्प।
भजो अकर्त्ताभाव को हो जावो अविकल्प ॥२॥
इस महा सत्य से तो हम सभी भलीभाँति परिचित ही हैं कि आज तक जितने भी आत्मा परमात्मा बने हैं; वे सभी एक ध्यान की अवस्था में ही बने हैं। जो भी जीव; रागी से पूर्ण वीतरागी, अल्पज्ञ से सर्वज्ञ और अनन्त दखी से अनन्त सुखी हये हैं; वे सब भी एकमात्र ध्यान की अवस्था में ही हुये हैं। इससे यह तो अत्यन्त स्पष्ट ही है कि एकमात्र धर्म; ध्यान ही है, आत्मध्यान ही है।
वैसे तो आर्तध्यान और रौद्रध्यान भी ध्यान ही हैं; तथापि यहाँ जिस ध्यान की बात चल रही है; वह न तो आर्तध्यानरूप है और न रौद्रध्यानरूप; क्योंकि वे क्रमशः तिर्यंच और नरक गति के कारण हैं और न यहाँ उन शुक्लध्यानों की ही बात है, जो साक्षात् मुक्ति के कारण हैं और चौथे काल में ही होते हैं
यहाँ तो उस धर्मध्यान की बात है; जो मोक्षमार्गरूप है, पंचमकाल के जीवों के होता है और चौथे गुणस्थान से सातवें गुणस्थान तक होता है।
धर्मध्यान चार प्रकार के हैं - १. आज्ञाविचय २. उपायविचय या अपायविचय ३. विपाकविचय और ४. संस्थानविचय।
इनका जो स्वरूप जिनागम में उपलब्ध है, वह सब विशेषकर स्वाध्यायरूप ही है। पर वे चार प्रकार के धर्मध्यान विकल्पात्मक होने से व्यवहार धर्मध्यानरूप ही हैं।
विकल्पात्मक होने से व्यवहार धर्मध्यानरूप ही हैं। आज्ञाविचय नामक धर्मध्यान में चरणानुयोग में प्राप्त जिनाज्ञा का चिन्तवन किया जाता है, जिसके आधार पर श्रावकों और मुनिराजों का आचरण सुनिश्चित होता है। के धर्मध्यान श्रमण उपायविचय या अपायविचय धर्मध्यान में द्रव्यानुयोग में प्राप्त तत्त्वज्ञान का एवं सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूप मुक्तिमार्ग का और विपाकविचय तथा संस्थानविचय धर्मध्यान में करणानुयोग में समागत कर्मसिद्धान्त और जैनदर्शन संबंधी भूगोल का चिन्तन होता है।
इसप्रकार यह धर्मध्यान एकप्रकार से स्वाध्याय रूप ही है। स्वाध्याय में इनका अध्ययन और धर्मध्यान में इनका चिन्तन-मनन अधिक होता है। यद्यपि स्वाध्याय में भी चिन्तन तो होता है; तथापि ध्यान में उसकी मुख्यता रहती ह है। स्वाध्याय के पाँच भेदों में भी अनुप्रेक्षा नामक एक भेद है, जो चिन्तनरूप ही है
स्वाध्याय में बाह्य प्रवृत्ति अधिक है और ध्यान में सब कुछ अंतरंग ही है।
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